Monday, April 2, 2018

संवाद 3 (माँ और मैं)

माँ, आप कितनी इत्मीनान से सुना करती थी ना मुझे, जब भी कुछ लिख कर के आपको सुनाता, आप मानों मेरे शब्दों के बहाव में सफ़र किया करती थीं। आज जब आप नहीं हैं तो मेरी हर रचनाएँ अधूरी सी लगती है। मुझे ऐसा लगता है कि मैं शब्दविहीन नहीं बल्कि अर्थविहीन हूँ।
पता है माँ , आप जों कहती थी न मुझे की मैं अपने लेखनी का अभेलना करता हूँ, ईश्वरीय आशीर्वाद का निरादर करता हूँ, जो मैं अपनी इस प्रतिभा को अपने तक रखता हूँ। आप कहते कहते थक गई लेकिन मैंने कुछ नहीं किया, क्योंकि जब भी आपको सुना देता था न वो अपनी रचनाओं को, लगता था कि सारा विश्व को सुना दिया मैंने, और आज जब शारिरिक रूप से आप गौण हैं तो मैं हर काव्य मंच पर अपनी रचनाओं को पढ़ता फिरता हूँ, और दर्शकों में आपको ढूंढने को प्रयासरत रहता हूँ , और हर बार हार जाता हूँ खुद से।
मैंने आपको अपने संवादों में, शब्दों में और सहस्त्र स्वपनों में आपके वितचित्र खिंचने की कोशिश की, मगर हर बार नाकाम हो जाता हूँ। शायद ब्रह्माण्ड में कोई शब्दावली नहीं बनी जो माँ के प्रारूप को प्रत्यक्ष कर सके।
पता है, वो जो आप कहती थी न मुझसे की मुझमें बचपना है, और मैं हर बार आपसे इस बात पे बहस करता, आज ऐसा प्रतीत होता है कि आप ठीक ही कहती थी। पता है , आज मैं पिताजी से, मुम्बई में मिलकर वापस जा रहा हूँ, उन्होंने आते टाइम मुझे 200 रुपये दिए , मैंने मना किया मगर उन्होंने जबरदस्ती मुझे दिया और कहा कि तुम अभी बच्चे हो, रख लो रास्ते मे काम आएगा। माँ आज पिताजी की आँखे नम देखी, शायद वो पिताजी हैं, इसीलिए चाह कर भी ये ना बोल पाए कि कुछ दिन और रुक जाओ, और मैं ये सब समझते हुए भी नहीं रुक पाया। पता है ये ज़िन्दगी की आपाधापी से मैं अब ऊब गया हूँ, मुझे कभी कभी सब कुछ छोड़छाड़ कर भाग जाने का दिल करता है, मगर जब आंखे बंद कर के सोचता हूँ तो आप सर्वत्र दिखती है, फिर में शांत हो जाता हूँ और ज़िन्दगी मुझे अपने हिसाब से जीती जाती है, और मैं उसका पिछलग्गू बन के परिक्रमा करते रहता हूँ..और शायद करता ही रहूँगा जीवन के जीवन्त लीलाओं तक।

भास्कर

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