Tuesday, August 7, 2018

अंतरद्वंद

      "अंतरद्वंद"
कहने की बारी मेरी थी अब
सुनते ही तो बड़ा हुआ था
मन के अंदर भी कुछ बातें
यूँ ही दशकों से पड़ा हुआ था
सोचा मैंने भी की चलो अब
साहस कर ही लेते हैं
खुल कर के सब कुछ बोल ही देते हैं
गुमनाम चुप्पी का सबब
कब तक खुदगर्जी को देंगे
अबकी बार सब कुछ छोड़ कर
स्वयम् को स्वयम् से ही परिचय देंगे

जोर लगाई थी मैंने अबकी बार
एकाकी में बैठ स्वयम् से
आखिर कह दी थी मैंने
खुद से ही खुद की बात
अब बात यूँ सजग हुई
अन्तः मन से निकल कर
ओंठों के संग संलिप्त हुई
बुदबुदाते ओंठों ने चेहरे की
भंगिमाओं को स्वरूप भी दिया था
मैंने शायद खुद को फिर से
खुदगर्जी में ही बल दिया था

अब शब्द हाहाकार बन
यूँ ही प्रस्फुटित हुई थी
अन्तः मन का स्वरूप
आँखों के समक्ष प्रस्तुत हुई थी
शब्द वेदना में मैं प्रखर गतिमान रहा
और इधर शब्दों के संग अश्रुओं ने भी
अपना उपस्थिति प्रत्यक्षमान किया
रुँधते गले से शब्दों का विचरण
अब बाधित था
स्वयम् के समक्ष मैं , स्वयम् ही प्रताड़ित था
शारीरिक अवस्थाएँ भी अब साथ छोड़ चुकी थी
मैंने अब विलोपन में शून्यता को संजो ली थी
घुटने के बल बैठ मैंने दोनों हाथ चेहरे पर रखे थे
अंतरद्वंद के उल्लासित  फ़लसफ़े को
आमंत्रित कर अब खुद में ही खो गए थे !!

भास्कर


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