Sunday, June 3, 2018

"मायावी विश्व के चक्रव्यूह "

दूर फैले, ख़ामोशी के शोर में
फ़ैल जाती जब कोलाहल आहिस्ते
यूँ,
अतीत के अमर्त्य इस्थिरता से
वर्तमान की स्व-व्यवस्थता से
और भविस्य की गौण ज्यामिति से
तब, सहसा
संवेदना जड़वत हो उठती,
सुसुप्त यादेँ जिवंत हो उठती
और अंतर्मन के अल्फ़ाज़ सहज सघन
फिर
ललकारती परिस्थितियां,
अकाट्य चक्रव्यूह सा सामने दिखती
बौद्धिक विवेक मानों प्रार्थना करती
और स्वप्न की हसरतें क्रीड़ा करती
फिर
ढूँढता मैं
अपने अल्फ़ाज़ों के उस अवलम्ब को
इस्थिरता के अवतार को
साकार प्रतिरूप को
और मेरे निश्चिन्तता के नियति को
और
हर प्रतिबिम्ब में दिखती वो
उपस्थित ,शास्वत रूप से
फिर मैं,
आँखे बंद करके इस्थिरचितता के साथ
एकटक दीवालों को घूरते हुए
निशा के चादर में गुम हो जाता
अश्रुबूँदों के लाव लश्कर को समेटे हुए
और ,
हर सुबह शुरू हो जाता,
कशमकश, आपाधापी लिए
और संग लपेटे एकाकीपन के चादर को
उनमे गुम हो मैं, खो जाता कहीँ
मायावी विश्व के चक्रव्यूह में......

भास्कर

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