Sunday, September 15, 2019

"गाँव मे शहर"

"मुझे पता था ऐसा होने वाला है। जीवन के अंतिम पड़ाव पे सबकुछ शान्त सा दिख रहा था। अभिनय के अंतिम चरण में समय का चक्र गतिमान लग रहा था, और माया प्रभावी। मैं नहीं चाहता था कि मेरे अकस्मात से कोई प्रभावित हो लेकिन ये हो न सका। सभी माया में संबंध के मायावी प्रलोभन में आसक्त थे।

मुझे भी सब याद आ रहा है, कभी भी मैं कूच कर सकता हूँ, लेकिन ये पलायन नहीं था, ये स्वाभाविक और स्वीकार्य था। जीवन के गंतव्य के प्रभंजन से कौन बच सका था अबतक, स्वयम्भू भी उसके गत्य से खुद को अलग नहीं कर सके जब।"

मैं खो सा गया था जग कर के, एक तन्द्रा का विचारणीय भोर हुआ था। मैं अब भी वहीं बैठा था बिस्तर पे, खिड़की से पर्दे हटा दिए थे मैंने, और बाहर झांकने लगा था। आँखों के सामने बस सुर्ख़ बियावान आसमान दिख रहा था, सामने सड़क पर चलती हुई कुछ गाड़ियाँ और उदास सा सवेरा। आँखे बिल्कुल बदहवास सा था, समझ मे नहीं आ रहा था स्वप्न का मर्म। एक तरफ जहाँ सुबह का बियावान शहरी चरित्र था तो दूसरे तरफ स्वप्न का गौण यथार्थ।

मैं अब थोड़ा भावुक होने लगा था, शायद ये भावुकता सत्य ज्ञापित था स्वप्न का और दर्पित दृश्य का। दोनों ही सत्य थे, एक सत्य जो जीवन के अवसान का कटु सत्य था और दूसरा जैविकता के स्वाभाविक अवसान का सामयिक सत्य। अजीब विडम्बना था, मैं अपने अतीत में खोने लगा था, मुझे सुबह की लालिमा के साथ होने वाले और दिखने वाली कलरवों का 25 साल पुराना अतीत दिखने लगा था। पता नहीं ये अस्वभाविक स्वप्न कैसी मनोदशा को मुझे हस्तांतरित कर रहा था। मैं जीवन के सत्य और पृथ्वी पर जैवीय और प्राकृतिक क्षरण को अवशोषित करती विकास का आरोह देख रहा था और समानांतर विश्व मे कहीं स्वस्वप्न में खुद के भौतिक अवसान का स्वप्नसत्य भी कहीं मुखर था।

ये सारी मानसिक अवस्थाएँ मुझे बचपन की ओर खींच रहा था, और मैंने, अपने आप को ढीला छोड़ दिया था। बहाव में बहने लगा था मैं... मैं खुद उस व्यतीत और अतीत का हिस्सा होने को व्याकुल होने लगा था, जहाँ जीवन के कलरव प्रकृति के समक्ष साम्य था, और हृदय के अंदर हर्षित। मुझे आज भी याद है कि पिताजी मुझे ये कह कर उठाते थे की "देख कौआ और मैना भी पेड़ पे कलरव करने लगे हैं"।तब इन पक्षियों पे गुस्सा आता था और पिताजी पर भी, मगर उषा के आरंभ के साथ उनके साथ चहलक़दमी करते हुए हम दोनों भाई काफी खुश हुआ करते थे, उस मॉर्निंग वॉक पे जा के। हालांकि सत्य कुछ और हुआ करता था, क्योंकि आते समय एम्प्रो बिस्कुट का डब्बा जो मिलता था। ख़ैर....

आज सुबह की इस आपाधापी में मैं बिल्कुल गौण हुआ जा रहा था और विचार मुखर। मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया था मुझे नहीं पता था, मगर एक दिगम्बर सोच काफ़ी उन्मुख हो रहा था, और ये था कि "जीवंत जीवन के पराकष्ठा उसके मुखर होने में हैं ना कि मौन"। मेरा स्वप्न मुखर था, मगर सुबह का शहर मौन! हालाँकि जीवन दोनों में था, सत्य भावी था और वर्तमान अधूरा।

अब आत्मकहानी में जैविकता जद्दोजेहद करने लगी थी, और जीवन्तता ज़िरह। हालाँकि तार्किक दर्शन दोनों का सत्य था, एक उत्तरजीविता का संघर्ष था तो दूसरा संघर्ष में उत्तरजीविता था। मगर इस जैवीय चक्र मे जैविकता और जीवन्तता का सामरिक उत्कर्ष समानांतर नहीं दिख रहे थे। जहाँ मानवीय जीवन्तता था वहां जैविकता का उपहास था और जहाँ जैविकता उत्कर्ष पे थी वहाँ मानवता का तत्कालीन परिभाषा गौण दिखता था। अजीबोगरीब पेशोपेश था...

ख़ैर जीवन का चक्र कब से दार्शनिक तर्कों से चलने लगा, वो तो सदैव ऎच्छिक विप्पनता-सम्प्पनता, सामाजिक ताना- बाना, प्रकृतिक संतुलन-असंतुलन, उदघोषित विचार-दर्शन ,आत्मीय सम्बन्धों-संवेदनाओं और छद्म निज स्वीकार्यता का श्रृंखला से ही परिभाषित होता आ रहा था।

काफ़ी समय बीत चुका था, इन तर्कों और विचारों में , सुबह का सूरज धुँधले आसमान से प्रदूषण से भड़े बादलों से निकलकर खुद का उपस्थिति दर्ज करवाने लगा था। हालाँकि आसमान अब भी नंगा ही था, न बादल थे न ही आसमानी चारक और ना ही प्राकृतिक नीरवता का कहीं कोई निशान था।ख़ैर ये शहर जो था... शहर जो बस जिंदा था, इंसानों के साथ और इसके उपजाए विकासोन्मुखी क्रियाविधियों और इसके परिणामों के साथ। शहर जिन्दा तो था मगर जीवन गौण था, और जीवन्तता शर्मसार। इंसान जीवित थे मगर इंसानियत मर रहा था ...उजाला मुखर था मगर प्रकाश धूमिल था...संततियां पनप रहा था मगर प्रजातियां विलुप्त हो रहा था...ज्ञान बढ़ रहा था मगर बुद्धि क्षीण होते जा रही थी...नीरवता अग्रसर था और नीरसता मुखर...इंसान प्रगति पे थे और परिवार ह्वास की तरफ़... मूल कुटम्ब सम्पन हो रहा था तो समाज गायब...शायद हम विकास कर रहे थे??....और हाँ शहर फैलता जा रहा था....शहर का चरित्र मुखर हो गाओं में बसने लगा था। शहर जिंदा हो रहा था और गाँव शहरी विचारधाराओं से लैस हो रहा था। "जब तक शहरों में गाँव बसता था ,शायद गाँव तब तक जिंदा था। जबसे गाओं में शहर बसने लगा ,तबसे शहर भी मरने लगा था"।अब दोनों का अस्तित्व अवसान पे था।

"मेरे गाँव मे अब कई शहर था, मगर मेरे शहर में एक भी गाँव नहीं था"। शायद मेरे स्वप्न मुझे मेरे शारीरिक अवसान का मर्म नहीं ज्ञात करवा रहा था अपितु वो मेरे अंदर के मरते गाँव को मुझे ही दिखा रहा था। हाँ वो स्वप्न में शायद मैं नहीं मरा था, वो मेरा गाँव मुझमे मर गया था। और वो रोते हुए मेरे अपने ही कुटुम्ब "वृक्ष, वो कलरव करते तोता और मैंना, वो पोखर, वो भोज ,वो झींगुर और उसकी सीटियाँ, अमावस की रात में टिमटिमाते जुगनू, टर-टर करता मेढक, वो मल्हार गाती शाम और प्राति गाता सबेरा, मन्दिर की घंटी सुन प्रसाद लेने को भागते बचपन ,देहरी से आवाज देती माँ, और दालान पे बैठे बुज़ुर्ग.... और भी पता नहीं कितनी स्मृतियाँ... सब मर चुके थे मेरे अंदर बस बचा था तो मैं ,मेरे दिखावे का शहरी चरित्र।

सूरज निखरता जा रहा था..और मैं एकबार फिर अपने खोने के गाँव और होने के शहर के साथ गुम हो गया था भेड़ चाल की भीड़ में...कहीं......

भास्कर

No comments:

Post a Comment